बागीचे में पेड़ बौरा गये हैं फिर से,
लद गए हैं केरियों से ।
प्रतीक्षा में हैं, उन हाथों की
जो पेड़ पर चढ़कर, डंडा मारकर
तोड़ कर ले जाएंगे केरियाँ ।
उन नन्हे हाथों के उत्साह में,
डंडे और पत्थर की मार भी
पुरस्कार ही लगेगी इन पेड़ों को ।
पर ये ऋतु अब बीत चली है
और केरी तोड़ने वाले हाथ बंद हैं घर में,
केरियाँ पक कर आम बनने लगी हैं
फिर भी ये बागीचा बिल्कुल खाली है,
बागीचे के पेड़ भी अब समझ गए हैं शायद,
इस बार ये प्रतीक्षा, प्रतीक्षा ही रहने वाली है ।