आजकल जब भी इस शहर को आता हूँ,
अपने आईने से भी नज़रें चुराता हूँ ।
नीम पर बैठी वो चिड़िया जैसे ताने कसती है,
मैं बस खामोशी से सुनता जाता हूँ ।
पुराने कुछ किस्से दबाये बैठा हूँ ज़हन में,
बस उन्हें याद करके वक़्त बिताता हूँ ।
दोस्त - दुश्मन कौन थे याद नहीं अब,
हर बशर से दुआ सलाम करता जाता हूँ ।
जो घर अपने थे, उनकी खिड़कियाँ बंद रहती है,
मैं बस दीवारों से मिलकर लौट आता हूँ ।
ये शहर, ये गलियाँ अब पराये हो चुके,
मैं भी सराय समझ कर एक रात रुक जाता हूँ ।
मधुर द्विवेदी
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