Friday, July 9, 2021

टोबा टेक सिंह






कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं,
कई बिशनसिंह यहां पर ।
उनमें से एक मैं भी हूँ,
ढूंढ रहा हूँ अपना टोबा टेक सिंह ।

कभी घूमता हूँ गोल गोल
धर्म की चक्की पर,
अटक जाता हूँ कभी
महंगाई की सुई पर ।
राह फिर भी नज़र आती नहीं
तो कदमों के नीचे की ज़मीन को ही
मान लेता हूँ टोबा टेक सिंह ।
और खड़ा रहता हूँ दिन रात,
अच्छे दिनों को याद करते हुए ।

मेरे पागलपन पर,
दोनों ओर के पहरेदार हंस रहे हैं
जी भर कर फब्तियां कस रहे हैं ।
मिज़ाज़ के भी दोनों बड़े सख़्त हैं,
जानते हैं कि 2024 में अभी वक़्त है ।

लेकिन भूल जाते हैं ये लोग
कि मैंने हार नहीं मानी है ।
भले मिटा दिया हो इन्होंने
कागज़ के पन्नों से पर,
ज़िंदा है वजूद टोबा टेक सिंह का,
मेरा यकीन जब तक बाकी है ।

और एक दिन ये पागलपन मेरा
इंक़लाब जरूर लाएगा,
उस दिन हर एक बिशनसिंह,
अपने गाँव ज़रूर पहुंच जाएगा ।

मधुर द्विवेदी

(आदरणीय दादाजी डॉ. चंद्रकांत द्विवेदी जी को समर्पित)

सआदत हसन मंटो की कहानी टोबा टेक सिंह से प्रेरित

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