Tuesday, December 10, 2019

दिल्ली

क्या करें कि अब कोई राह नज़र नहीं आती,
धूप और धुएँ का गुबार हर तरफ है,
छांव भर नज़र नहीं आती,
सांसें देते थे जो दरख्त,
उन्हें कबका काट दिया हमने,
अब घुट घुट के जी रहे हैं,
मौत बर नहीं आती ।
सुना था कभी कि दिल्ली का अपना दिल है,
लेकिन आज कहीं धड़कन नज़र नहीं आती ।

मधुर

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